आज जब मैंने दो छोटे बच्चों को खेलते देखा, तो मेरे मन में मेरे बचपन की यादें ताज़ा हो गईं। उनकी खिलखिलाहट और मस्ती ने मुझे उन दिनों की याद दिलाई, जब हम बिना किसी चिंता के सड़कों पर खेला करते थे। मैं सोचने लगा कि काश मैं अपने बचपन में लौट सकता। वो मासूमियत, वो हंसी-खुशी, और वो बेफिक्री के दिन, जब ज़िंदगी इतनी आसान और सुंदर लगती थी, फिर से जीने का मन होता है।
मेरा बचपन का वो दौर जब हम दिनभर चिड़ियों की चहचहाहट के साथ खेलते थे, हर छोटी-सी चीज़ में खुशी ढूंढ लेते थे। हमें ये नहीं पता था कि बड़े होते ही ज़िंदगी की जिम्मेदारियाँ कैसे हमें घेर लेंगी। हर सुबह स्कूल जाने की खुशी, दोस्तों के साथ मिलकर लंच शेयर करना, और खेल के मैदान में घंटों दौड़ना—ये सब बातें अब एक मीठी याद बन गई हैं।
मैं सोचता हूं कि क्या कभी लौट पाऊंगा उन बेफिक्र लम्हों में? उस समय जब न कोई चिंता थी और न ही कोई फिक्र। बड़े होने के साथ-साथ जब ज़िम्मेदारियों का बोझ बढ़ा, तो हमें अपनी मासूमियत और हंसी-खुशी को भी कहीं छोड़ना पड़ा। जीवन के इस व्यस्त सफर में कभी-कभी हमें खुद को याद दिलाना चाहिए कि खुशी कितनी सरल होती है।
जब भी मैं उन बच्चों को खेलते देखता हूं, मुझे लगता है जैसे मैं भी उस मासूमियत का हिस्सा बन गया हूं। उनकी सादगी और जिज्ञासा मुझे प्रेरित करती है, और मैं मन ही मन सोचता हूं कि हमें कभी न भूलना चाहिए कि खुशी के लिए हमेशा किसी बड़े चीज़ की तलाश नहीं करनी होती। कभी-कभी, बस एक खिलौना या एक साधारण खेल ही हमें वो बेफिक्र लम्हे वापस दे सकता है। बचपन के दिन याद करते ही यह कविता याद आ जाती है 👉
🪶“कागज की कश्ती थी, पानी का किनारा था,
खेलने की मस्ती थी ये दिल आवारा था,
कहाँ आ गए इस समझदारी के दलदल में,
वो नादान बचपन भी कितना प्यारा था।”
नोट : - यह कविता मशहूर भारतीय कवि कुमार विश्वास द्वारा लिखी गई है।
बचपन की मस्तियाँ
दोस्तों के साथ धमाल:
मेरे बचपन के दिन ऐसे थे जब हम चार-पांच दोस्त एक साथ रहते थे। दिन की शुरुआत होती थी घूमने और खेलने से। गर्मियों की छुट्टियों में हम सभी दोस्त सुबह-सुबह निकल पड़ते और घर लौटने का कोई ठिकाना नहीं होता। हम दीवारों को फांदकर एक-दूसरे के घर चले जाते, माता-पिता की डांट खाते और फिर से उसी मस्ती में लौट जाते। घर लौटने पर बड़े-बुजुर्गों से हमेशा डांट पड़ती कि "अरे, कहां गए थे? दोपहर हो गई, और रोटियों का कोई अता-पता नहीं!"
गर्मियों की धूप और मस्ती:
गर्मियों की चिलचिलाती धूप में भी हम घर में नहीं रुकते थे। कभी इसके घर तो कभी उसके घर घूमते रहते थे। घर वाले कहते थे कि धूप लग जाएगी, लेकिन हमें उनकी बातों की परवाह नहीं होती थी। हम धूप की परवाह किए बिना मस्ती में लगे रहते थे।
बचपन के दोस्तों के साथ हरकतें
खतरनाक वाक्या:
हमारी टोली हमेशा किसी न किसी उत्पात में लगी रहती थी। एक दिन मेरे एक दोस्त ने छत पर लगे मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया। मधुमक्खियों ने उसे इतना डंक मारा कि उसका चेहरा पूरी तरह से सूज गया, जैसे हनुमानजी का चेहरा। उसकी हालत देखकर हमें बहुत हंसी आई, और हम हँसते-हँसते घर लौट गए।

वो दृश्य अब भी मेरी आँखों के सामने है—उसका सूजा चेहरा और बेचारे की कोशिशें कि वो हमें समझाए कि यह सब सिर्फ एक मज़ाक था। लेकिन हमें तो उस पर हंसी आ रही थी। हम उसे "मधु-बाबा" के नाम से पुकारने लगे, और उसका चेहरा देखकर हमारी हंसी और बढ़ गई। हम सोचते थे कि अब उसकी ये हालत हमेशा याद रहेगी, और स्कूल में सबको ये कहानी सुनाकर हम अपने दोस्तों के बीच हीरो बन जाएंगे।
वो दिन हमारे लिए एक सीख भी था। हमने जाना कि कभी-कभी अपनी जिज्ञासा के चलते हम कितनी बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हैं। उस घटना के बाद हमने फैसला किया कि हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हमारी मस्ती किसी को नुकसान न पहुंचाए। हालांकि, कुछ समय बाद हम फिर से अपने पुराने कारनामों में लग गए, लेकिन अब हमने थोड़ा सा सावधानी बरतना शुरू कर दिया था।
कई बार हम उस दिन को याद करते, और "मधु-बाबा" की कहानी सुनकर फिर से हंसते। वो दिन हमें बताता था कि बचपन की मस्ती में कोई भी किस्सा कितना खास हो सकता है। ऐसे अनुभव ही हमारे जीवन के अनमोल क्षण होते हैं, जो हमें हंसते-हंसाते हैं और हमें एक-दूसरे से जोड़ते हैं।
जब भी मुझे अपनी टोली के बारे में याद आती है, मैं महसूस करता हूँ कि वो दिन हमारी दोस्ती की नींव बन गए थे। हंसी-मज़ाक, छोटी-छोटी शरारतें, और वो बेफिक्र लम्हे आज भी मेरे दिल में बसते हैं, reminding me of the simple joys of childhood.
मेरा बचपन के क्रिकेट और गिल्ली-डंडा:
हम अपने घरों के पास की गलियों में क्रिकेट और गिल्ली-डंडा खेलते थे, जैसे हम किसी बड़े स्टेडियम में मैच खेल रहे हों। हमारे दादाजी, जो खुद कभी क्रिकेट के नायक थे, हमें खेलते देख कर अक्सर गंभीरता से कहते, “नालायकों, कभी इससे अपनी आँखें फोड़ लोगे!” उनकी ये बातें सुनकर हमें हंसी नहीं रोक पाते थे, क्योंकि उनका चेहरा हमेशा एक सच्चे क्रिकेटर की तरह गंभीर होता था, लेकिन उनकी आँखों में हमेशा एक चुलबुली चमक होती थी।
कभी-कभी, जब गेंद उनके पास से गुज़रती, तो वो हमसे ज्यादा तेज़ दौड़ने लगते। हम हंसते-हंसते फटे फटे हो जाते थे, जैसे कोई सुपरहीरो उनकी तरह दौड़ रहा हो। उनकी कोशिशों के बावजूद, हम हमेशा उनके हाथ से बच निकलते थे, जैसे हम कोई जादुई प्राणी हों।
जब वे हमारे पीछे दौड़ते थे, हम एक-दूसरे को इशारे करते, “देखो, दादा जी आ रहे हैं!” और फिर हम अपनी सारी ऊर्जा एक साथ मिलाकर और भी तेज़ भागते। उनकी हंसी के बीच हम ये सोचते कि वो भी कितने मज़ेदार होते हैं। कभी-कभी, दादा जी खुद भी हंसते-हंसते रुक जाते और हमें कहते, “तुम लोग तो सच में बहुत नालायक हो!”
इन सभी बातों ने हमारे खेल को और भी मजेदार बना दिया। उनकी डांट के साथ-साथ हंसी की मिठास हमेशा हमारी यादों में बसी रहेगी। खेल के मैदान में इन यादों का जादू ऐसा था कि न केवल क्रिकेट और गिल्ली-डंडा, बल्कि हमारे दादाजी की मस्ती भी हमेशा हमारे साथ रहती थी। हमें अपने दादाजी की बातें सुनकर पता चलता कि बचपन का हर पल कितना खास होता है, और हम अपनी मासूमियत के साथ-साथ उनके मजेदार किस्सों को भी हमेशा याद रखेंगे।
मंदिर और ताश की मस्ती
मंदिर में झगड़े:
शाम के समय हम सभी मंदिर जाते थे और वहाँ ढोल-नगाड़े, घंटी, और मंजीरा बजाने के लिए एक-दूसरे से झगड़ते थे। प्रसाद वितरण के समय हम पंडित जी को घेर लेते थे और कहते थे कि हमें सबसे ज्यादा प्रसाद मिलना चाहिए।
ताश के खेल और मजेदार शब्द:
दोपहर के समय हम ताश पत्ती खेलते थे और मजाकिया शब्दों का प्रयोग करते थे। जैसे - “तेरा आलू सिक गया,” “मेरा तो अभी कच्चा है,” “वो तेरी रानी ले गया,” आदि। इन शब्दों ने हमारे खेल को और भी मजेदार बना दिया था।
मेरा बचपन की यादें और मस्ती
होली की मस्ती:
काश, वो बचपन वापस आ जाता जब हम होली के दूसरे दिन एक-दूसरे को रंग लगाते और कीचड़ में लथपथ कर देते थे। उस समय की मस्ती और आनंद की कोई तुलना नहीं की जा सकती।
बेर और खेत:
जब झाड़ियों में बेर लगते थे, तो हम एक झुंड बनाकर उस खेत में घुस जाते थे, जैसे कोई साहसिक मिशन पर निकल पड़े हों। हमारी टोली में चार-पांच दोस्त होते, और हम चुपके से खेत की ओर बढ़ते। खेत का मालिक अक्सर हमारे पीछे दौड़ता, चिल्लाते हुए हमें भगाने की कोशिश करता, लेकिन हमारी फुर्ती और चपलता हमेशा उसके पकड़ में आने से पहले ही हमें वहां से निकलने का मौका दे देती थी।
हर बार जब हम बेरों के पेड़ों के नीचे छिपते, तो हमारी हंसी की गूंज चारों ओर फैल जाती। वो मीठे बेर हमें जैसे जादुई खुशी देते, और हमें लगता कि हम दुनिया के सबसे अमीर बच्चे हैं। बेर तोड़ते वक्त, हम एक-दूसरे के साथ मजेदार किस्से सुनाते, एक-दूसरे को डराते और कभी-कभी छोटे-छोटे मजाक भी करते।

यह न केवल हमारे लिए एक रोमांचक अनुभव था, बल्कि यह हमारी दोस्ती को और मजबूत बनाता था। हर बार जब हम उस खेत में जाते, हम नए तरीके खोजते थे ताकि मालिक हमें पकड़ न सके। कभी हम झाड़ियों के पीछे छिप जाते, तो कभी पेड़ों की शाखाओं पर चढ़ जाते।
हमारी मस्तियों का यह हिस्सा हमें हमेशा हंसी का कारण बनाता था। जब भी हम घर लौटते, हमारी आंखों में चमक होती और चेहरे पर मुस्कान, जैसे हमने किसी बड़े साहसिक कार्य को पूरा किया हो। इन यादों के साथ-साथ, हम हमेशा उस अजीब खौफ और उत्साह को भी याद करते हैं जो हमें उन बेफिक्र दिनों में महसूस होता था।
इस तरह की छोटी-छोटी शरारतें हमारे बचपन का अनमोल हिस्सा थीं, और आज भी जब मैं उन दिनों को याद करता हूं, तो दिल में एक मीठी सी मुस्कान आ जाती है। बचपन की ये मस्तियां ही हमें जीवन के अनमोल क्षणों की याद दिलाती हैं, जो हमेशा हमारे साथ रहेंगी।
निष्कर्ष
“पैसा कम था लेकिन बचपन में दम था।” बचपन की वो मस्तियाँ, हंसी-खुशी और बेफिक्री के दिन अब केवल यादें बनकर रह गई हैं। उन दिनों की यादें अब भी मेरे दिल को छू जाती हैं और मैं सोचता हूँ कि काश वो दिन वापस आ सकते। जीवन की इस समझदारी और जिम्मेदारियों की दुनिया में, बचपन की मासूमियत और मस्ती की कमी हमेशा खलती है।